जखनियां गाजीपुर।दया धाम उद्याम दार्शनिक, आदि अंत के अंतर्यामी ।स्वयंभू सदा सर्वदा सेवक,हचर स्वामी।।लाखों भूख प्यास के मारे ,मरे हुए आंखों का पानी ।प्राण पटल पर लिख दी जिसने,कसक सिसक की करुण कहानी।। उपरोक्त पंक्तियां शब्द पुनर्जागरण के सलाका पुरुष स्वामी सहजानंद सरस्वती के बहुमुखी प्रतिभा को परिभाषित करती हैं ।जी हां बात उस महान व्यक्तित्व की करते हैं जिनकी याद में प्रतिवर्ष दो बार उनके पैतृक गांव देवा में वृहद समारोह का आयोजन किया जाता है ।पहला जन्मदिन के मौके पर महा शिवरात्रि के दिन तो दूसरा 26 जून की नियत पुण्य तिथि पर ।विज्ञान बुद्धि संपन्न बहुआयामी सांस्कृतिक राजनीतिक व जुझारू व्यक्तित्व के कारण अपने समय के समस्त राजनयिकों में विशिष्ट पहचान बनाने वाले स्वामी सहजानंद सरस्वती उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के जखनिया तहसील के दुल्लहपुर थाना अंतर्गत देवा गांव में 22 फरवरी

18 89 में श्री बेनी राय शर्मा की चौथी संतान के रूप में महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर जन्म लेकर नव रत्नों से अलंकृत बालक नव‌रंग राय ने देवा गांव को देव गांव बना दिया।जो आगे चलकर बालक नव रंग ने ज्ञान शक्ति एवं वैराग्य के बलबूते सहज आनन्द प्राप्त कर स्वामी सहजानंद हो गये। जन्म के तीसरे वर्ष में माता का साया सिर से उठ जाने के कारण बालक नवरंग राय मातृत्व स्नेह से बंचित हो गए।18 99 मे 10 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण करने के लिए पास के प्राथमिक विद्यालय में दाखिला कराया गया ।1902 में जर्मन मिशन स्कूल गाजीपुर जो वर्तमान में सीटी कॉलेज है में पढ़ने के लिए प्रवेश कराया गया। बढ़ती हुई उम्र में 1905 में परिवार वालों द्वारा वैवाहिक बंधन में बांध दिया गया। अंतत: एक वर्ष बाद1906मे पत्नी को काल‌ने छीन लिया। पत्नी की मृत्यु के बाद स्वामी जी का एकाकी जीवन परिवार वालों को रास नहीं आया और परिवार वालों ने फिर एक बार पुनःवैवाहिक सूत्र में बांधने का प्रयास किया । वर्ष 1907मे स्वामी जी पुनर्विवाह के भय से स्कूल छोड़ कर काशी पहुंचकर दशनामी संप्रदाय के स्वामी अच्युतानंद गिरी से सन्यास ग्रहण कर लिया और उन्नीस सौ आठ तक समग्र भारत का भ्रमण तथा योग सिद्धि गुरु की तलाश की सफलता के बाद 1909से 1910 में काशी में ही दंडी स्वामी अद्वैतानंद सरस्वती से दंड ग्रहण कर दंडी स्वामी की उपाधि ग्रहण कर लिए। योग साधना की आकांक्षा पूरी न होते देख कर ज्ञान मार्ग की ओर प्रवृत्त हों गए।

तथा 1912 तक तत्कालीन भारत विख्यात काशी और मिथिला के गुरुजनों से शास्त्र अध्ययन किया ।इस प्रकार स्वामी सहजानंद सरस्वती के जीवन के 23 वर्ष का कालखंड तैयारी के रूप में कह सकते हैं। स्वामी जी अगले 16 वर्ष तक सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे वर्ष 1949 में बिहटा (बिहार) भूमिहार ब्राह्मण जातीय सम्मेलन में उपस्थित हुए थे। स्वामी जी समझौता वादी नहीं थे। सत्य के प्रति समर्पित और सच्चे देश भक्त थे।भारत के इतिहास में जब-जब किसान आंदोलन की बात होगी सहसा आंदोलन के हृदय पटल पर स्वामी जी का नाम निर्विवाद अंकित रहेगा ।यह सत्य है कि तिलक गांधी जैसे ना जाने कितने लोगों ने अपने समय में किसान आंदोलन चलाया परंतु स्वामी ने जो अखिल भारतीय किसान आंदोलन की‌ स्थापना किया वह काफी सशक्त और प्रभावशाली एवं किसानों का सच्चा हितैषी साबित हुआ ।किसान को भगवान मानकर हृदय में ‌स्थापित करने वाले स्वामी जी किसान के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते थे दुनियां माने या ना माने ,मगर मेरा तो भगवान किसान ही‌‌ है और मैं उनका पुजारी हूं। स्वामी जी निष्कपट कटु सत्य और वाक् पटु थे । जिन को लोभ भी छूने में भी डरता था। एक मिसाल के तौर पर कहा जाता है कि 1949 में बीहटा(बिहार) में स्वामी जी की हीरक जयंती मनाई गई। और समारोह समिति द्वारा साठ हजार की थैली भेंट की गई। जिसको स्वामी जी ने वहीं जनहित में दान कर दिया। स्वामी जी की देशभक्ति अन्य भारतीय वामपंथियों से मेल नहीं खाती थी।यही वजह थी कि लोगों से वैचारिक मतभेद भी रहता था। यही कारण था कि किसी भारतीय नेता की तुलना में सुभाष चंद्र बोस के साथ उनका स्वभाव गत मेल प्रकार था। सचमुच विद्वान सन्यासी किसान मजदूर राज्य की स्वतंत्रता स्वतंत्रता पूर्व के समर्पित गांधीवादी तथा आजादी बाद मार्क्सवाद प्रभावित क्रांतिकारी गंभीर साहित्यकार प्रखर पत्रकार और जुझारू समाज सेवी के रूप में समर्पित थे। कहा जाता है कि यदि गांधी का कालखंड रामराज और करुणा की उपज बनकर उतरने वाला था तो स्वामी सहजानंद का मार्कसवाद भी करुणा से संबद्ध था। ऐसे ही स्वामी जी की अनेक साहित्यिक कृतियां जैसे कर्म कलाप ,झूठा भय और मिथ्या अभिमान, खेत मजदूर, मेरा जीवन संघर्ष ,क्रांति और संयुक्त मोर्चा ,महारुद्र का महा तांडव ,जंग और आखिरी लड़ाई ,और गीता हृदय ,आज शोध छात्रों के लिए अमूल्य धरोहर हैं। होश संभालते ही जिसे योग बैराग और वेदांत ने अपनी ओर खींचा उस महामानव को मौत ने अपने क्रूर पंजों से 26 जून 1950 को हमसे छीन कर अपनी गोद में सुला दिया