गाजीपुर के जमानियां आशूरा मुहर्रम के 10 वें दिन मनाया जाता है। इसे इस्लामी वर्ष के सबसे पुण्य दिनों में से एक माना गया है। इसके साथ ही आशूरा का दिन कर्बला की लड़ाई में इमाम हुसैन की शहादत भी हुई थी। हुसैन पैंग़ंबर हज़रत मोहम्मद के नवासे थे। इस साल आशूरा 17 जुलाई को मनाया जाएगा। हालांकि, आशूरा की सही तारीख स्थान और मुहर्रम 1446 के चांद के दिखने पर निर्भर करती है। बता दें कि मुहर्रम को अल्लाह द्वारा निर्धारित चार पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। 61 वें वर्ष में दसवें मुहर्रम (अशूरा का दिन) को कर्बला की लड़ाई हुई थी। जिसके दौरान पैगंबर के नवासे इमाम हुसैन को बेरहमी से शहीद कर दिया गया था। मुहर्रम का महीना मुसलमानों के लिए धार्मिक और ऐतिहासिक दोनों ही दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। यह पहला महीना भी है। जो मुसलमानों के मदीना में हिजरा (प्रवास) और 622 ई. में पहले इस्लामी राज्य की स्थापना का प्रतीक है। 9 वीं मोहर्रम को इमाम हुसैन की याद में ताजिया बनाया और चिन्हित स्थानों तक घुमाया जाता है। इस दौरान नोहा और मर्सिया के जरिए इमाम हुसैन पर हुए जुल्म की दास्तान की बयान किया जाता है। और 10 वीं मोहर्रम को सभी ताजिया कर्बला मैदान पहुंचता और इसके साथ ताजिया पर रखे फूल अन्य सामग्री को दफन किया जाता है। इस दौरान शाही जामा मस्जिद के सेकेट्री मौलाना तनवीर रजा सिद्दीकी ने फरमाया की अल्लाह की दुआ. दया और कृपा पाने का सबसे अच्छा महीना माना गया है। हर एक दिन सवाब पाने का असर सबसे अधिक होता है। इस महीने के दौरान रोज़ा रखने के साख कुरान पढ़ना के साथ नियमित रूप से सद़का (दान) करना अच्छा माना गया है। इससे अल्लाह का (दुआ) आशीर्वाद पूरे साल बना रहता है। उन्होंने बताया कि मुहर्रम में रोज़ा रखना काफी पवित्र माना गया है। कहा जाता है। कि इस दिन उपवास रखना चाहे, तो रख सकते हैं। और छोड़ना चाहे, तो छोड़ सकते हैं। मुहर्रम को लेकर शिया और सुन्नी दोनों ही समुदाय की अलग-अलग मान्यताएं है। जहां सुन्नी समुदाय के लोग 9 और 10 वीं तारीख को रोज़ा रखते हैं, तो वहीं शिया समुदाय के लोग 1 से 9 तारीख के बीच में रोज़ा रखते हैं। इसके बाद 10 वीं तारीख को यौम-ए-आशूरा के दिन रोज़ा नहीं रखते हैं। मुहर्रम के 9 वें और 10 वें दिन सुन रहे हैं। फ़ारसी में उन्हें तासुआ और आशूरा कहा जाता है। रजा ने बताया जाता हैं। मुसलमान मुहर्रम महीने के नौवें और दसवें दिन को देते हैं। इन्हीं दिनों कर्बला की लड़ाई हुई थी। हम इमाम हुसैन को मानने वाले हुसैन के बारे में चर्चा करते है। इमाम हुसैन जो आशूरा के दिन शहीद हुए थे और जिन्हें ये दो दिन समर्पित हैं। उन्ही की याद में ताजिया बनाकर नौहा मर्सिया के जरिए उनका बयान करते है। मौलाना तनवीर रजा सिद्दीकी ने फरमाया की 10 अक्टूबर, 680 ई. को इमाम हुसैन और ओमायद वंश के शासक यजीद के बीच जंग छिड़ गई। इस लड़ाई का कारण इमाम हुसैन द्वारा यजीद के नाजायज शासन का विरोध था। मुहर्रम के नौवें दिन जिसे तासुआ भी कहा जाता है। यजीद की सेना ने इमाम हुसैन के साथियों के तंबुओं को घेर लिया। और आशूरा के दिन एक भयंकर युद्ध या नबार्ड हुआ। जिसके दौरान इमाम हुसैन और उनके साथी अन्यायपूर्ण तरीके से शहीद हो गए थे। उसी गम का इजहार के तौर पर हर साल इमाम हुसैन को  मुसलमान और अन्य लोग गम का इजहार करते है। और इस ऐतिहासिक घटना के सम्मान में व्यापक शोक समारोह आयोजित करते हैं। उन्होंने बताया कि तासुआ और आशूरा के दौरान हम कई तरह की दास्त और हेयात देख सकते हैं। जो सड़कों पर आयोजित होने वाली शोक परेड हैं। दास्त में लोगों के समूह सामूहिक रूप से समारोह आयोजित करते हैं। ऐसे समारोहों में शिया के लोगों में पुरुष ज़्यादातर काले कपड़े पहनते हैं। और शोक अनुष्ठानों में शामिल होते हैं। ज़ंजीर ज़ानी, जो एक ऐसा समारोह है। जिसमें लोग अपने कंधों और पीठ पर जंजीरों से पीटकर अपना दुख प्रकट करते हैं, ऐसी ही एक रस्म है। सीन-ज़ानी एक और शोक अनुष्ठान है, लेकिन इस अनुष्ठान में प्रतिभागी जंजीरों के बजाय अपने हाथों से अपनी छाती पीटते हैं। ढोल बजाए जाते हैं और झंडे लहराए जाते हैं। रजा ने यह भी बताया कि फ़ारसी में झंडा शब्द आलम है। मुहर्रम के 9 वें और 10वें दिन की अन्य रस्मों में ताज़ी का प्रदर्शन भी शामिल है, जिसे शबीह खानी भी कहा जाता है। इमाम हुसैन को शिया मुसलमानों द्वारा 'सलार-ए-शहीदान' की उपाधि दी गई है। जिसका शाब्दिक अर्थ है, शहीदों का गुरु। मुहर्रम महीने के 9वीं और 10 वीं को एक बड़ा ताबूत होता है। जो काले और हरे कपड़े से ढका होता है। जिसे आशूरा के दिन शोक मनाने वाले लोग इमाम हुसैन के ताबूत के प्रतीक के रूप में ले जाते हैं। इस दिन को मुसलमान गम के रूप में मनाते है। और मुस्लिम इलाको में लोगों के लिए शर्बत पिलाने के साथ जगह जगह नेयाज फातिया कराते और शिरनी के तौर पर मीठा जर्दा अन्य खाने की चीज को वितरण करते है। उक्त मौके पर मोहम्मद नेसार मंसूरी, मोहम्मद दानिश मंसूरी , मोहम्मद शाहिद जमाल मंसूरी, मोहम्मद ताबिश मंसूरी, मोहम्मद अफजाल मंसूरी, मोहम्मद साजिद मंसूरी, महफूज आलम, के साथ ताजिया को सजावट कर अंतिम रूप देने वाले कलाकार नसीम माली, साहब अली, मोहम्मद राजन मंसूरी आदि लोग मौजूद रहे।