गाजीपुर के जमानियां नगर कस्बा स्थित शाही जामा मस्जिद में शुक्रवार को अपने तकरीर पेश करते हुए बताया कि करबला की जंग में भले ही हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हुए। लेकिन इस जंग ने हक और ईमान का झंडा बुलंद किया। यजीद ये जंग जीतकर भी हार गया। और हजरत इमाम हुसैन इस जंग में शहीद होकर दुनिया को शांति और अमन का पैगाम दे गए। उन्होंने कहा कि करबला की मैदान में इंसाफ के लिए हुई जंग में पैगंबर के नवासे के सामने चीर दिया था। बेटे का प्यास से सूखा गला लेकिन सच के लिए हुसैन ने दी थी। शहादत और सच्चाई के लिए हजरत इमाम हुसैन ने कटवा दिया अपना सिर। रजा ने करबला की इस्लाम के पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों (जिसमें परिवार के सदस्य भी शामिल थे) तथा करबला की जंग में शहीद हो गए। उन्होंने बताया कि यह जंग सन 680 (इस्लामिक सन 61 हिजरी) को हुई थी। करबला की जंग में एक तरफ हजारों यजीदी सैनिकों का लश्कर था। जो एक ऐसी हुकूमत को मानते थे। जहां हर जुर्म-अत्याचार जायज था। वहीं, दूसरी ओर हजरत इमाम हुसैन की सरपरस्ती (अगुयायी) में 72 लोगों का काफिला जो हक और न्याय के लिए सब कुछ कुर्बान करने को तैयार थे। जिसके बाद जंग हुई और इतिहास बन गया। ये दुनिया की इकलौती जंग रही जिसमें जीता हुआ हारा साबित हुआ। और इस्लाम का परचम बुलंद हुआ। बताया जाता है। की अरब की जमीन से मजहब-ए-इस्लाम का उदय हुआ. 570 ईस्वी में अरब के शहर मक्का में हजरत मोहम्मद साहब का जन्म हुआ था। 40 साल की उम्र में आपको नबूवत (नबी, पैगंबर) हासिल हुई और आप अंतिम पैगंबर हुए। यह इतिहास और तारीख में दर्ज है। कि 8 जून 632 ईस्वी में 62 साल की उम्र में आप इस दुनिया से रुखसत हो गए। यह वो दौर था, जब इस्लाम को मानने वाले दुनिया में तेजी से फैल रहे थे। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के दीन को लोग खुशी-खुशी कुबूल कर रहे थे। आप की रुखसती के बाद खिलाफत का दौर शुरू हो गया। इसमें एक खलीफा होते जो पूरी दुनिया के मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करते और ये खलीफा अल्लाह और उसके रसूल, पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के हुक्म के मुताबिक मुसलमानो के चुने हुए लीडर होते थे,खलीफा का चुनाव लोगों पर हुकूमत करने के लिए नहीं होता था। बल्कि अम्नो पसंद की तरफ बढ़ते मुआशरे को इस्लामी कानून और कवायद के मामले में रहनुमा के तौर पर किया जाता था। इन्हीं में पहले चार खलीफा बने जिनमें, हज़रत अबू बक्र (रजि अन्हा), हजरत उमर (रजि अन्हा), हजरत उस्मान (रजि अन्हा) और हजरत अली (रजि अन्हा) शामिल थे। इन्हीं चार खलीफाओं में से एक हजरत अली, जो पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के चचाजात भाई भी थे। और दामाद भी हजरत अली का पैगंबर मोहम्मद साहब की बेटी हजरते फातिमा के साथ निकाह हुआ था।. आपके चार बच्चे हुए। इनमें दो बेटे और दो बेटी. बेटों में हजरत हसन और हजरत हुसैन थे। वहीं, बेटियों में हजरते जैनब और हजरते उम्म कुलथुम थीं। हजरत अली की अरबी जबान पर अच्छी पकड़ थी। जाहिरी तौर पर क़ुरान सीखने में उन्होंने अपनी खिलाफत के दौरान मुसलमानों को एक करने और अम्नो अमान कायम करने की पूरी कोशिश की। लेकिन उस दौर में बगावत भी चरम पर आ गई थी। मौलाना तनवीर रजा सिद्दीकी ने आगे उन्होंने विस्तार से बताया कि हजरत अली ने बागियों का मुकाबला किया और नहरवान की लड़ाई में उनको तबाह किया और सुधारों की शुरूआत की. 40 हिजरी, रमजान के महीने की 20 तारीख को मस्जिद में नमाज पढ़ाने जाते वक्त बागियों ने हजरत अली को जहरीली तलवार से धोखे से शहीद कर दिया। उस वक्त आप की उम्र 63 साल की थी। हजरत अली की शहादत के बाद इस्लाम में बिखराव पैदा होने लगा। आप के इंतकाल के करीब 10 साल बाद हिजरी 50 में आप के बड़े बेटे हजरत इमाम हसन को भी बागियों ने जहर देकर शहीद कर दिया। रजा ने दास्तान सुनाते सुनाते अपने आंसू को रोक नहीं पाए। उन्होंने बताया कि इस्लामी दुनिया में घोर अत्याचार और जुल्म का उदय हुआ। इसी बीच मक्का से दूर सीरिया का गवर्नर यजीद खलीफा बन गया। उसने खलीफा बनते ही वो काम शुरू किए जो इस्लाम के बिलकुल खिलाफ थे। उसने बादशाही हुकूमत करना शुरू कर दी जो खलीफा के उसूलों के खिलाफ थी। यहीं नहीं यजीद ने अपनी खिलाफत में शराब, अय्याशी और हर बुरे काम को शामिल कर लिया। उसे हजरत इमाम हुसैन ने किया नामंजूर। आगे बताते है। की यजीद खलीफा तो बन गया लेकिन उसकी खिलाफत को हजरत अली के बेटे हजरत इमाम हुसैन ने मानने से इनकार कर दिया। आप के इनकार से इस्लाम का बड़ा तबका यजीद को खलीफा मानने से पीछे हट गया। इस दौरान यजीद ने सोचा कि अगर हजरत इमाम हुसैन उन्हें अपना खलीफा मान लें। तो वो इस्लामिक दुनिया में अपनी धाक जमा सकता है। इसी को लेकर यजीद ने हजरत इमाम हुसैन के पास अपना प्रस्ताव भेजा (जिसमें यजीद को खलीफा मानने और उसके हाथ में बैअत करना शामिल था) लेकिन हजरत इमाम हुसैन ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जिसके बाद यजीद आग बबूला हो गया उसने अपने राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा। तुम हुसैन को बुलाकर मेरे आदेश का पालन करने को कहो। अगर वो नहीं माने तो उसका सिर काटकर मेरे पास भेजा जाए। राज्यपाल वलीद ने हजरत इमाम हुसैन को राजभवन बुलाकर यजीद के फरमान को सुनाया। आप हजरत इमाम हुसैन ने साफ लफ्जों में यजीद की बुराई वाली हुकूमत को मानने से इनकार कर दिया था। उसी दौरान 60 हिजरी के अंतिम महीने में आप हजरत इमाम हुसैन अपने काफिले के साथ हज के लिए रवाना हो गए। और हज की जगह उमरा कर रवाना हुए। हजरत इमाम हुसैन यजीद को जब यह सब मालूम हुआ तो उसने हजरत इमाम हुसैन को कत्ल करने के लिए अपने सैनिक मक्का के लिए रवाना कर दिया। वो सैनिक भेष बदलकर हजयात्रियों में शामिल हो गए। जब हजरत इमाम हुसैन को इसकी भनक लगी। तो पवित्र स्थल काबा शरीफ के आस पास कोई खून खराबा न हो यह सोचकर वहां से हज की छोटी रिवायत उमरा करके इराक के लिए रवाना हो गए। हजरत इमाम हुसैन ने जब यजीद को खलीफा मानने से इनकार किया। तो इसका समर्थन इराक के शहर कूफा वालों ने भी किया था। उन्होंने हजरत इमाम हुसैन को कई खत लिखे और उन्हें कूफा आने को कहा था। हजरत इमाम हुसैन ने लोगों के खत मिलने के बाद वहां के हालात जानने के लिए मुस्लिम बिन अकील को अपने प्रवक्ता के रूप में कूफा भेजा। वहां जाकर मुस्लिम बिन अकील को सब कुछ ठीक ठाक लगा तो उन्होंने एक खत हजरत इमाम हुसैन लिखकर कूफा आने को कहा। उन्होंने बताया कि कूफा वालों ने दिया था धोखा। इसी दौर में अपने कूफा में अपने बढ़ते विरोध को देखते हुए यजीद ने इब्न जियाद को कूफा का गवर्नर बना दिया. इब्न जियाद ने कूफा में अत्याचार शुरू कर दिया जिससे वहां की आवाम अब उसके कहने पर चलने लगी। कूफा के लोगों ने मुस्लिम बिन अकील की हत्या कर दी।  मौत से पहले मुस्लिम बिन अकील हजरत इमाम हुसैन की कूफा आने के लिए खत लिख चुके थे। मक्का से कूफा की दूरी करीब 1 हजार किलोमीटर की थी। जिसे पूरा करने में 20 दिन का समय लगता था। हजरत इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ 60 हिजरी के अंतिम महीने जिल हिज्जा की 3 तारीख को मक्का से उमरा कर कूफा के लिए निकल चुके थे। रजा ने आगे बताया कि सन 61 हिजरी को मुहर्रम के महीने में आप का काफिला इराक पहुंचा तो आप को कूफा के लोगों की गद्दारी और यजीद की साजिश का पता चल गया। इस दौरान आपका काफिला इराक के शहर करबला के मैदान में पहुंच चुका था। वहां आपके काफिले को यजीद की सेना ने घर लिया।हजरत इमाम हुसैन ने अपने साथियों के साथ वहीं पर तंबू गाड़ दिए। इस दौरान यजीद ने अपने सरदारों से कई बार हजरत इमाम हुसैन के पास बैअत करने का पैगाम भेजा लेकिन हर बार आपने उसे ठुकरा दिया। 7 मुहर्रम की तारीख को यजीद की सेना ने बगल में बहने वाले दरिया पर पहरा बैठाकर पानी पर रोक लगा दी। और हजरत अली असगर के प्यासे हलक में मारा तीर। यजीदी सैनिकों ने एक-एक कर हजरत इमाम हुसैन के घर वालों और उनके साथियों को शहीद करना शुरू किया। बाबजूद इसके आपने जालिम यजीद के आगे झुकना मंजूर नहीं किया। पानी बंद होने से हजरत इमाम हुसैन के खेमों में लोग प्यास से तड़पने लगे। इस दौरान हजरत इमाम हुसैन के सबसे छोटे बेटे हजरत अली असगर (जिनकी उम्र 6 महीने की थी) को प्यास लगी। तो उनके होंठ प्यास की वजह से सूख गए थे। पानी के लिए हजरत इमाम हुसैन हजरत अली असगर को अपनी गोद में लेकर दरिया की ओर गए। और वहां सैनिकों को अपने नन्ने प्यासे बेटे के लिए पानी मांगा। तभी सैनिकों की ओर से एक तीर आया और हजरत अली असगर के प्यासे गले को चीर गया। शाही जामा मस्जिद में जितने भी नमाजी मौजूद रहे करबला की दास्तान सुन सुन कर अपने आंसू को रोक नही पर। मौलाना ने बताया कि जुल्म के खिलाफ हमेशा अपनी आवाज को उठाना चाहिए। और हजरत इमाम हुसैन की शहादत ने सीख लेनी चाहिए। झूठ फरेब से बचना चाहिए। जो भी बोले सही बोले। तनवीर रजा ने यह भी बताया कि 10 मुहर्रम की सुबह हजरत इमाम हुसैन नमाज पढ़कर जंग के लिए आ गए। काफी देर तक जंग होती रही। हजरत इमाम हुसैन यजीद की फौज पर हावी होते रहे। यजीद का सेनापति इब्ने सअद को जब लगा कि ऐसे जंग नहीं जीती जा सकती तो उसने चारों ओर से सैनिकों की घेराबंदी कर हजरत इमाम हुसैन पर तीरों की बौछार शुरू करा दी। और तीरों की बारिश में आप छलनी हो गए। एक तीर आपके माथे पर लगा। जिससे आप बेहोश होकर जमीन पर सजदे की हालत में गिर गए। इतने में आप पर यजीद के सैनिक तलवारें लेकर टूट पड़े। एक सैनिक सिफत सनान के तलवार से हमला कर हजरत इमाम हुसैन के सिर को धड़ से अलग कर आपको शहीद कर दिया। 61 हिजरी, 10 मुहर्रम यानि 10 अक्तूबर 680 ईस्वी को 56 साल, 5 माह और 5 दिन की उम्र में जुमा के दिन हजरत इमाम हुसैन शहीद हुए। इसी दिन मुस्लिम समाज के लोग हजरत इमाम हुसैन को याद करते हैं। और आप की याद में भारत समेत पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित कई मुल्कों में ताजिया बनाए जाते हैं।